नोट: इस कविता का केवल शीर्षक अँग्रेज़ी में है, क्योंकि यही बिना भाषा बदले उपयुक्त लगा इसकी भावना में।
"यकायक जीवन के किसी मोड़ पर
वो मुस्कुराता हुआ मिलेगा",
किसी ने वर्षों पहले कहा था।
मैं उसे ढूँढ़ते हुए इस वीरान मोहल्ले में पहुँची,
सुना था आजकल वो बहुत ग़मगीन है,
तबियत सुस्त रहती है, साँसें टूटने लगी हैं।
पुरानी सँकरी गली के अन्त में देखी,
एक झोपड़ी जिसका छप्पर टूटा था,
अंदर पानी रिस रहा था,
एक तिरछी चारपाई पर वो लेटा था,
कदमों की आहट सुनकर चौंक गया।
"क्या काम है मुझसे? कौन हो?",
लड़खड़ाती बूढ़ी आवाज़ ने पूछा।
"मैं एक कलाकार हूँ,
आपको ढूँढ़ रही थी कब से।"
"सब मर गए हैं क्या?", उसने तल्ख़ ज़बान में पूछा।
"आप मर रहे हैं क्या?", मैंने भृकुटी तानकर पूछा।
वो खाँसते हुए हँसा और बोला,
"अच्छा तो तुम हो बताओ क्या चाहिए?"
"कला मर रही है, साहित्य तड़प रहा है,
सब पैसों के ठेकेदार हो गए हैं,
कोई सच्चा साहित्य नहीं पढ़ता अब,
साहित्य के रखवाले माया में लीन हैं,
जो दिखता है वही बिकता है,
काव्य कब का विलुप्त हो गया है,
कहानियाँ घुट घुट कर बिगड़ रही हैं,
जीवन देने वाला अब ज़हर उगल रहा है,
कला का स्वरूप अब कलाकार तोड़ रहा है,
मैं विवश हूँ क्या करुँ अब घोर निराशा छाई है,
दुनिया में नित नया रचता द्वेष भला नहीं लगता,
कलम उठाने को अब मेरा हृदय नहीं कहता |"
"कला कहाँ मर रही है", वो दैत्यों सा हँसकर बोला,
"कौन सी कला संकट में है,
क्या कुछ लोगों का साहित्य ही कला है,
अरे वह तो अनंत काल तक रहेगी,
वह 7 अरब रूप लेकर दुनिया में घूम रही है,
हर इन्सान के भीतर जन्म लेकर रह रही है।
कभी मिल जाती है किसी को अपनी कला,
और वो महान बन जाता है उसे पाकर।
कभी ढूँढ़ ही नहीं पाता कोई उसे,
और वो अंदर ही दब जाती है उसकी मृत्यु तक।"
"पर वह तो खो रही है आजकल",
मैंने बीच में टोका।
"हर इन्सान की अपनी कहानी है कला,
हर आदमी का अपना मोक्ष है साहित्य,
कोई टॉलस्टॉय बन गया,
कोई प्रेमचन्द हो गया,
किसी ने प्रेम पर काव्य लिखा,
किसी ने युद्ध को लाल रंगा,
कोई आकाश की कल्पनाओं में ऊँचा उड़ा,
कोई ज़मीन पर संघर्ष के सत्य में गड़ा,
काफ़का बना कोई भावनाओं में,
दिनकर बना कोई घटनाओं में,
कला इतनी बार जन्मी,
और फ़िर जब जब इन्हें पढ़ा गया,
वो बढ़ती रही, कभी मरी नहीं,
और हर बार जब कोई कलम उठाएगा,
वो जन्म लेती रहेगी।
साहित्य तड़प रहा है क्योंकि
कलाकार का अहम् ऊपर उठ गया है।
वो अब भी कुलबुला रहा है,
सच्चाई से लिखे जाने को।
बस उसका कोई अपमान ना कर दे,
वो फ़िर से लहलहाएगा।
बस तुम याद रखना वो नाज़ुक है,
हर किसी का अपना साहित्य है।
जो किसी की कला है वो तुम्हारी नहीं,
जो तुम्हारी कलम का रंग है वो किसी और का नहीं,
कलाकार की तरह रंगो उसे,
वो मरती नहीं है, तुम्हें हर रूप में मिलेगी।"
"और आप?", मैंने धीरे से पूछा।
उसके चेहरे की झुर्रियाँ गायब हो रही थीं,
उठकर बैठा और बोला,
"लो मैं भी फ़िर से जाग गया,
मैं तुम्हारा साहित्य हूँ, लिख डालो फ़िर से।"
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