Labels

Thursday 23 April 2020

दूरदर्शन और 90 के दशक की पीढ़ी



लॉकडाउन घोषित होने के 3 दिनों के भीतर ही दूरदर्शन ने रामायण कार्यक्रम दिखाना शुरु कर दिया। लक्ष्य था सामान्य जनता को लॉकडाउन के समय में धैर्य रखने, शान्त रहने में मदद करना। और कुछ हद तक यह काम भी आया। लोग ऑफ़िस की भाग दौड़ से छूटकर वैसे भी एक रूटीन बनाकर रह रहे थे। इसी रूटीन में सुबह 9 बजे और रात को 9 बजे रामायण देखने का सिलसिला लोगों की दिनचर्या में जुड़ गया। बिल्कुल वैसे ही जैसे आज से करीब 30 वर्ष पहले लोग अपने टेलीविज़न के सामने बैठकर नियत समय पर इंतज़ार करते थे अपने पसंदीदा कार्यक्रमों का। कुछ ऐसा माहौल होता था उस ज़माने में कि दर्शक घर में सबके साथ बैठकर सारे काम छोड़कर ना सिर्फ़ इन्हें देखते थे बल्कि बाद में उन पर चर्चा भी होती थी।

अब रामायण में तो ऐसी बहुत सी बातें हैं जिन पर चर्चा हो सकती है क्योंकि रामायण तो सीख देने वाले अनेक प्रसंगों से भरी हुई है। दूरदर्शन ने दर्शकों की nostalgia वाली नब्ज़ को पकड़कर 90 का दशक वापस ला दिया। महाभारत, ब्योम्केश बख्शी, चाणक्य, शक्तिमान, बुनियाद, सर्कस, देख भाई देख और कई ऐसे कार्यक्रम (और Amul के पुराने ऐड्स भी) जिनका 90 के दशक में बोलबाला था, जिन्हें देखकर दर्शक खुद को उनसे जुड़ा हुआ पाते थे, दूरदर्शन ने सभी का प्रसारण शुरु किया और दर्शकों को पुराने दिनों की दुनिया याद आ गई।

अभी कुछ ही दिनों पहले एक मित्र से बात हो रही थी तो अनायास ही मुँह से निकला कि nostalgia एक बहुत ही strong emotion है, इसे वही समझ सकता है जो उस पल इसे महसूस कर रहा हो। सबसे बड़ी बात यह है कि nostalgia एक महासागर के समान है, जिसमें आप एक बार अपने पैर का अँगूठा डालकर देखेंगे और फ़िर लहरें आपको कहीं बहुत दूर किसी ऐसे समय में ले जाएँगी जो आप अभी तक याद नहीं कर पा रहे थे। तो दूरदर्शन का पुराने कार्यक्रम दिखाना दर्शकों को ना सिर्फ़ टेलीविज़न के कई और धारावाहिकों जैसे सी हौक्स, उड़ान, फौजी, बेताल पचीसी, कैप्टन व्योम, श्री कृष्णा, मालगुड़ी डेज़ की याद दिलाता है वरन् ऐसे एक ज़माने का जब जीवन बहुत सरल था। उस समय किसी प्रकार के pressure में आकर Netflix पर लोग यूँ ही सीरीज़ नहीं देखते थे।

"दिल ढूँढ़ता है फ़िर वही फ़ुरसत के रात दिन..."

ग़ालिब की वो शायरी सुनकर सर्दियों की दोपहर ज़रुर याद आती है जब आम के पेड़ से हल्की हल्की छनकर आती धूप में चटाई पर किताब पढ़ते हुए लेटे रहते थे, और छिली हुई मटर मिलती थी चुपके से। घर के बड़े शाम को फ़ुरसत के पल चाय पीते हुए साथ बैठकर बातें करते हुए बिताते थे, बच्चे शाम को घरों से बाहर निकला करते थे खेलने के लिए, दोस्तों से मिलना जुलना होता था, किताबें खरीदने दुकान जाना होता था, और वो जहाँ चाचा चौधरी, सुपर कमांडो ध्रुव, नागराज, बिल्लू जैसी कॉमिक्स का उभरता दौर था, वहीं उन दिनों प्रेमचंद की कहानियाँ, रामायण, महाभारत, इतिहास और दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ शौक के लिए पढ़ी जाती थीं। रात को बिजली गुल हो जाने पर या तो कहानियाँ सुनाई जाती थीं या रेडियो पर पुराने गीत सुने जाते थे।

छुट्टियों में दादी-नानी के घर जाना होता था, रिश्तेदार सिर्फ़ शादियों में नहीं मिलते थे, पड़ोसियों से मिलना जुलना रोज़ होता था, फ़ोन के कॉन्टैक्ट्स 500 होने पर भी बात करने वाला कोई ना हो ऐसा नहीं होता था और त्योहार सिर्फ़ घर में मनाकर सेल्फ़ी लेने तक सीमित नहीं थे, बल्कि हर साल दीवाली की सफ़ाई में पुरानी चिट्ठीयाँ मिला करती थीं। फ़ोन या तो लैंडलाइन होते थे जिन पर बात करने का समय निर्धारित करके सब वहीं इकट्ठा हो जाते थे या फ़िर लोग चिट्ठीयाँ लिखकर जवाब का इंतज़ार 10-15 दिन करते थे और जवाब मानो कुबेर के खज़ाने से कम ना था। यात्राएँ करके लोग वृत्तांत और जीवन के अनुभव एक दूसरे को सुनाते थे और कभी किसी ब्लॉग पर लिखने की ज़रुरत नहीं होती थी। एक सहज जीवन की धूमिल छवि पीछे याद करने पर स्वप्न्लोक की भाँति दिखाई देती है जो अब किसी बड़े शहर में भागते हुए जीवन में खो गई है। यह बहुत बड़ा कारण है कि अब लोग 90 के दशक में वापस जाने के लिए तरसते हैं।

क्या आपने कभी गौर किया है कि 90 के दशक का ये nostalgia सबसे ज़्यादा उन लोगों को क्यों महसूस होता है जिनका बचपन '85 से लेकर '99 तक बीता है? दरअसल हमसे पहले की पीढियाँ उसी सरल ज़माने में जीते हुए जिम्मेदारियों में बँध गईं और देखते ही देखते समय बदल गया। उनके समय में आराम से पढ़ाई करके नौकरी ढूँढ़ना और एक सहज ज़िन्दगी जीना ही काफ़ी था। हमारे बाद Boomers या Late Millennials की पीढ़ी आ गई जिन्होंने बचपन से ही कंप्यूटर, Y2K, टेक्नोलॉजी, कई टेलीविज़न चैनल्स और मोबाईल फ़ोन की दुनिया देखी और फ़िर घोर कॉम्पिटिटिव माहौल में बड़े हुए जहाँ उन्हें हॉबी क्लास और peer pressure जैसे शब्दों के द्वारा दूसरे बच्चों से मिलने का मौका मिला जिसमें समय की कमी जैसा कांसेप्ट उन्हें बड़ा ही सामान्य लगता है। उन्हें पता ही नहीं है 90 के दशक का ज़माना।

बीच में हम हैं जिन्होंने बचपन उस सरल 90 के दशक में बिताया और बड़े होकर टेक्नोलॉजी के साथ आगे बढ़कर भाग दौड़ वाले एकाकी जीवन में खो गए। हमने दोनों ही दुनियाँ देखी हैं। तो यहाँ सिर्फ़ हमारी ही पीढ़ी है जो एक तरफ़ घर के बड़ों को मोबाईल और टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करना सिखाने और Late Millennials की पीढ़ी को पुरानी दुनिया में झाँकने देने के बीच की कड़ी हैं। और ये हमारी ही ज़िम्मेदारी है कि हम इस कड़ी का रोल अच्छे से निभाएँ क्योंकि ये जो emotion है ये हमें ही hit करता है सबसे ज़्यादा।

यही कारण तो है कि जब हम 90 के दशक के लोग अब जीवन में 2020 तक पहुँचकर अपनी भागती ज़िन्दगी से सुकून चाहते हैं तो ये जो wanderlust जैसे hashtag अब प्रचलित हैं ये हमें पुराने लगते हैं और हम अनायास ही अपने बचपन के ज़माने में चले जाते हैं, क्योंकि हमारे लिए वो बीती दुनिया हमारा अपना एक खोया हुआ हिस्सा है जिसे हम मृगमरीचिका की भाँति किसी तरह फ़ुरसत के पल में ढूँढ़ते हैं। आपने The Viral Fever का नाम सुना होगा। इस प्लेटफॉर्म पर इसी वजह से बहुत सी सीरीज़ अत्यधिक पसंद की जाती हैं क्योंकि इनमें कुछ जगहों पर वही सहजता दिखाए जाने की कोशिश की जाती है। वह खोया हुआ हिस्सा ना सिर्फ़ हमारे बचपन का, हमारी मासूमियत का होता है बल्कि वे सभी जीवन मूल्य जो अब भी हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा हैं और इस बदलते परिवेश में हमारी मानवता को ज़िन्दा रखते हैं, उनका भी प्रतिनिधित्व करता है। और उन सभी मानवीय मूल्यों को समाज में जीवित रखने का ज़िम्मा इसी 90 के दशक की nostalgia से ग्रस्त पीढ़ी का है।

तो अगली बार जब nostalgic होकर अपने उन सभी हिस्सों को ढूँढ़ें तो 90 के दशक से कुछ सरल जीवन मूल्य लाकर अपने व्यस्त जीवन में अपने आस पास स्थापित करने का प्रयास अवश्य करें। यही आपके 90 के nostalgia की असली पराकाष्ठा होगी।

No comments:

Post a Comment

Please leave an imprint of your thoughts as a response. It will be a pleasure to read from you. :)