तुम
जैसे कोई शांत सागर
बर्फी़ले पर्वत का शिख़र
सुबह की सीधी रोशनी
मैं
जैसे कोई अधीर लहर
प्रबल अग्नि की तीव्र चिंगारी
रात की सुगबुगाहट का साया
इतने अलग पर जब मिले,
उलझनें आसान हो गईं|
पिछली सारी लकीरें मिल गईं,
धारणाओं की सभी दीवारें ढह गईं|
मेरी बरसती बूंँदों पर उड़ती धुंध हो तुम,
चंचल मन में चलते सफ़र का सीधा रास्ता हो तुम|
हर दिन मेरी कल्पनाओं की सैर करते,
शब्दों धुनों किस्से कहानियों शहरों में झाँकते हुए
आकाश के नीचे धरा पर मेरा तारामंडल हो तुम|
कल्पनाओं से वापस आकर,
दिन के अंत में मेरा घर हो तुम|
कभी लिखेंगे दो अलग लहरें किनारे पर कैसे मिलती हैं
तब तक हाथ थामे रोज़ थोड़ा पिघलते हुए चलते हैं|
No comments:
Post a Comment
Please leave an imprint of your thoughts as a response. It will be a pleasure to read from you. :)