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Thursday 9 April 2020

अवधारणाएँ




अभी हाल ही में बहुत कुछ ऐसा देखने को मिल रहा है कि कई बार मन सोचने पर मजबूर हो जाता है कि हम अपने आस पास कैसा माहौल बना रहे हैं।

एक पुराने मित्र के विवाह समारोह में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ कुछ पुराने सहपाठी भी मिले जिनसे अब सम्पर्क ना के बराबर है। तो हुआ यूँ कि इतने सालों बाद मिलने पर वही सामान्य परिचय के बाद थोड़ा हल्का माहौल करने की कोशिश शुरु हो गई, जिसमें कई पुराने किरदार वैसे ही दिखने लगे जैसे वे वर्षों पहले थे।

सभी हल्का फ़ुल्का मज़ाक जारी रखते हुए शाम का मज़ा ले रहे थे। बातों बातों में लोग कई समसामयिक मुद्दों पर अपनी राय सामने रखने लगे। ज़ाहिर है इतने वर्षों बाद हर इन्सान में भारी बदलाव आ जाता है। कई लोग एक दूसरे से बहुत ही अलग वातावरण और सामाजिक परिवेश में ढले हुए होते हैं, अपने अलग विचारों, धारणाओं और व्यक्तित्व के साथ। और बहुत बार ऐसा होता है कि ये सभी समीकरण लोगों को एक दूसरे के विरुद्ध कर देते हैं। यही होने भी लगा, जो कि बिल्कुल सामान्य सी बात है।

आम तौर पर जब आप इतने वर्षों बाद घनिष्ठ नहीं रहते तो एक सामाजिक मर्यादा होती है कि आप विरोधाभासी विचारों पर एक शांतिपूर्ण चर्चा करने लायक परिपक्व रहें। यहाँ अजीब बात यह हुई कि बड़े बड़े मुद्दों के विरोधाभास तो बहुत ही शांति से नज़र अन्दाज़ कर दिये गये लेकिन जब थोड़ी देर बाद बातचीत व्यक्तिगत जीवन की ओर मुड़ गई तब तक वहाँ कुछ लोगों के मन में विरोधाभासी पक्ष के प्रति नकारात्मक धारणाएँ बन चुकी थीं ।
इस हद तक माहौल में हल्का हल्का तनाव घुल रहा था कि जब भी कोई अपने जीवन, अपने अनुभवों या अपनी आदतों के बारे में कुछ मज़ाक करता तब सामने से कुछ लोग उन विपरीत तथ्यों पर उसे नीचा दिखाने की कोशिश करने लगते। हालाँकि उनमें से कई लोगों ने यह बताया कि इसे हल्के में लेकर भुला दिया जाए क्योंकि वे सिर्फ़ समय काटने के लिये विरोधाभासी व्यक्तित्वों पर गहरे कटाक्ष कर रहे हैं और इतना 'कूल' तो सभी को होना चाहिए पर धीरे धीरे यह महसूस किया जा सकता था कि जिन लोगों पर बार बार वार किया जा रहा था वे या तो चुपचाप सबकी बातें सुनने लगे या दूसरे समूहों में शामिल होने चले गए, सीधे शब्दों में जो एक खुशनुमा माहौल भिन्न भिन्न अनुभवों से हर किसी के व्यक्तित्व में कुछ नया जोड़ सकता था वह एक नकारात्मक माहौल में बदल गया और बाकी की शाम में ऐसा कुछ दोबारा हो नहीं पाया।

मेरा मन यह सोचने पर मजबूर हो गया कि आज से कई वर्षों पहले जब हम ना तो इतने कूल थे ना ही इतने आधुनिक कि स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने की होड़ में दूसरों के व्यक्तित्व को तिरस्कृत करें तब अन्जान लोगों से वार्तालाप करना बड़ा ही सरल था। क्योंकि तब सभी को आदत थी कि कई मुद्दों पर बहस करके भी रात को जब सोने जाएँ तो कुछ नया सीखने का सन्तोष रहे मन में और आप इतिहास में जाकर देखें तो महान लोग अपने विरोधियों का सम्मान करने की परिपक्वता लेकर चलते थे। इसीलिए पंचायतों में या परिवारों में चर्चाएँ और निर्णय लेना आसान होता था। लोगों को एक दूसरे से सीखना सम्मान की बात लगती थी, लोग अपने आप से मतलब रखने से ज़्यादा अपने आस पास के जीवन को लेकर चलने वाले होते थे।

उस एक शाम में मुझे लगा कि कुछ लोग वैसे ही रहते हैं जैसी वो अपनी सोच बना लेते हैं, वे सही तो सब सही अन्यथा सब बकवास है, उन्हें जैसा जीवन जीना है वही पैमाना है, वे कभी बड़े नहीं होते चाहे कितने ही ओहदे या शहर बदल लें। और मज़े की बात यह है कि इन में से कई लोग आपको सोशल मीडिया पर इन्सानियत, महानता, भाईचारे के बारे में रोज़ रचनात्मक टिप्पणियाँ अपडेट करते हुए दिखेंगे । इनके सोशल मीडिया प्रोफ़ाईल देखकर आपको लगेगा कि जातिवाद, मानवाधिकार जैसे गम्भीर मुद्दों पर इनकी सोच इतनी अच्छी है कि ये उस श्रेणी में नहीं आते जो खाली समय में लोगों के बारे में बातें करते हों अपितु समाज में कुछ भला करने का सतत् प्रयास करते रहते हैं।

मन तब खिन्न हो जाता है जब यहाँ आपको पर्दे के पीछे दूसरी छवि देखने को मिलती है जो सोशल मीडिया के बाहर वही पुरानी लोगों की आलोचनात्मक टिप्पणी करके स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने की सोच मानती है। यह जो ट्रेंड है सचमुच काफ़ी ट्रेंडिंग हो चुका है अब। फ़िर इनमें और बाकी लोगों में क्या अन्तर रहा? आप ही सोचिये आज के समय में लोगों से बात करने के अवसर कितने कम मिलते हैं, आस पास का माहौल इतना थका देने वाला, भाग दौड़ भरा और नकारात्मक हो गया है और इसमें भी यदि आप किसी अन्जान को बुरा ही महसूस करवाएँ तो एक इन्सान के तौर पर आप कौन सा योगदान दे रहे हैं समाज में।

जीवन बहुत छोटा है, आपको यह भी नहीं पता कि जिससे आप आज मिले हैं कल वह जीवित रहेगा भी या नहीं या आपके शब्दों का उसके मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा । बहुत महान काम करने की अपेक्षा तो रखनी भी नहीं चाहिए और ना ही कोई किसी से रखता है आज के समाज में, पर अगर आप दो शब्द प्रोत्साहन या रचनात्मक ऊर्जा के नहीं दे सकते तो आप कौन सी तरंगें अपने आस पास बना रहे हैं जो निरंतर फ़ैलती वैचारिक हिंसा को कम करे या लोगों में विश्वास, प्रेम या दोबारा वैसा वातावरण बनाने में मदद करे जिससे असल जीवन में भी कोई योगदान दिया जा सके और इंटरनेट के बाहर भी व्यक्तिगत निर्णयों और धारणाओं का सम्मान करने के शब्द गूँजें और अभिव्यक्ति के अधिकार को जीने के उदाहरण दिखें।

ज़रा सोचिये इस बारे में।

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