कई दिनों से भाग रहा है मन,
आज इसे कुछ देर ठहरने दो।
रात काली शान्त हो चली है,
ज़रा हृदय का शोर गूँजने दो।
धरातल पर सब गतिमान है,
भीतर उथल पुथल मचने दो।
रेंगती हुई हवा में शंकाओं की बेड़ियों को,
आत्ममंथन की लौ में धीरे धीरे पिघलने दो।
यूँ सुकून तो हर क्षण दे रही है प्राणवायु,
आज मुझे उद्वेग की लहरों में तैरने दो।
इस धुँधली खिड़की के उस पार,
मन झाँक रहा है अनगिनत कल्पनाओं में।
लिखता हूँ अक्सर तारामंडल की कहानियाँ,
आज अपनी कहानी तरंगों में सुनने दो।
हवाओं से भेजता हूँ संदेश कई दिशाओं में,
आज हवा का झोंका बनकर उड़ने दो।
मैं शायद कई चेहरों से मिलता हूँ प्रतिदिन,
आज अपने अबोध मन से परिचय करने दो।
आज मन को कुछ देर ठहरने दो,
रात में हृदय का शोर गूँजने दो,
धरातल के भीतर उथल पुथल मचने दो।
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